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Showing posts from March, 2011

शहीदे आज़म की याद में

( 23 मार्च, भगतसिंह, राजगुरू और सुखदेव की शहादत का दिन... तीनों ने एक ही मकसद के तहत फांसी के फंदे को चूमा था और तीनों की शहादत किसी मायने में कम नहीं थी... लेकिन इन तीनों में भगत सिंह ज्यादा बौद्धिक और विचारवान थे... दरअसल भगत सिंह सिर्फ एक क्रांतिकारी नहीं, महान स्वप्नद्रष्टा भी थे... उनका लक्ष्य महज हिंदुस्तान को अंग्रेजों के चंगुल से आजाद कराना नहीं था... उनकी आंखों में शोषणमुक्त और हर तरह की गैरबराबरी की नुमाइंदगी करने वाले आजाद हिंदुस्तान का सपना तिरता था... उनका सपना आज भी मरा नहीं है... और न ही उनके विचार... नव उदारीकरण के इस दौर में जब बाकी और गरीब भारत चंद अमीर मुट्ठियों का नया उपनिवेश बनता जा रहा है, भगत सिंह और उनके विचार आज भी प्रासंगिक बने हुए हैं... शहादत दिवस के अवसर कुमार नयन की एक कविता के साथ शहीदे आज़म भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव को श्रद्धांजली... आज भगत सिंह हमारे बीच होते तो शायद वही कहते जो उनके बहाने कुमार नयन ने लिखा है...) पिघलेंगे पर खत्म नहीं होंगे ईश्वर नहीं हूं न अतीत हूं इस देश का मुझे मूर्ति में तब्दील कर मेरा पूजनोत्सव करने वाले जड़वादिय...

दो शहीदों की याद: भगत सिंह और पाश

कल यानी 23 मार्च भगत सिंह का ही नहीं, पंजाबी के मशहूर कवि अवतार सिंह संधू ‘पाश’ की भी शहादत का दिन है... फर्क सिर्फ ये है कि भगत सिंह गुलाम भारत की आजादी की लड़ाई में शहीद हुए थे, जबकि पाश आजाद भारत में... पाश ने भ्रष्ट राजनीति से उपजी सरकारी तानाशाही और उसी से निकले खालिस्तानी आतंकवाद दोनों के खिलाफ अपनी कविताओं के जरिए आवाज बुलंद की थी... वे दोनों की आंख की किरकिरी बने हुए थे... 23 मार्च 1988 को खालिस्तानी उग्रवादियों ने महज उनकी हत्या कर दी... पाश उस समय महज 38 साल के थे... पाश और भगत सिंह दोनों वामपंथी विचारधारा के समर्थक थे... और हर तरह की गैर बराबरी और तानाशाही के खिलाफ... पाश भगत सिंह से काफी प्रभावित भी थे... 1982 में उन्होने शहादत दिवस पर शहीदे आजम की याद में एक कविता भी लिखी थी... पाश की उसी कविता से पाश और भगत सिंह दोनों को श्रद्धांजली... ये बताते हुए भी कि विचार कभी नहीं मरते... न भगत सिंह के मरे और न ही पाश के... उसकी शहादत के बाद बाकी लोग किसी दृश्य की तरह बचे ताजा मुंदी पलकें देश मे सिमटती जा रही झांकी की देश सारा बच रहा साकी उसके चले जाने के बाद उसकी शहादत के बा...

कुछ यादें, कुछ बातें

मैंने चुराया था तुम्हारे लिए कुछ धूप, कुछ चांदनी कुछ सुबह, कुछ शाम घर-परिवार और दोस्तों से थोड़ा वक्त और खुद से अपने दिल का एक कोना ...लेकिन ये तुम्हारे कोई काम न आ सके सारी चुराई चीजें रह गई मेरे पास आज भी धरी हैं उसी तरह और पड़ रही हैं जिंदगी पर भारी...

बनारस… जिंदगी और जिंदादिली का शहर

(बनारस न मेरी जन्मभूमि है और न ही कर्मभूमि... फिर भी ये शहर मुझे अपना लगता है... अपनी लगती है इसकी आबो हवा और पूरी मस्ती के साथ छलकती यहां की जिंदगी... टुकड़ों-टुकड़ों में कई बार इस शहर में आया हूं मैं... और जितनी बार आया हूं... कुछ और अधिक इसे अपने दिल में बसा कर लौटा हूं... तभी तो दूर रहने के बावजूद दिल के बेहद करीब है ये शहर... मुझे लगता है कि आज की इस व्यक्तिगत महात्वाकांक्षाओं वाले इस दौर में, जहां पैसा ज्यादा मायने रखने लगा है, जिंदगी कम... इस शहर से हमें सीखने की जरुरत है...इस बार इसी शहर के बारे में...) साहित्य में मानवीय संवेदनाओं और अनुभूतियों के नौ रस माने गये हैं... लेकिन इसके अलावा भी एक रस और है, जिसे साहित्य के पुरोधा पकड़ने से चूक गये... लेकिन जिसे लोक ने आत्मसात कर लिया... वह है बनारस... जीवन का दसवां रस... जिंदगी की जिंदादिली का रस... जिसमें साहित्य के सारे रस समाहित होकर जिंदगी को नया अर्थ देते हैं... जिंदगी को मस्ती और फक्कड़पन के साथ जीने का अर्थ... कमियों और दुख में भी जिंदगी के सुख को तलाश लेने का अर्थ़... बहुत पुराना है बनारस का इतिहास... संभवतः सभ्यता के वि...