होली लोक का त्यौहार है और सिनेमा लोक का माध्यम. लेकिन जबसे हिंदुस्तान ने नव उदारीकरण के घोड़े पर सवार होकर कुलांचे भरना शुरू किया और सिनेमा लोकल से ग्लोबल होने लगा, होली गायब होने लगी. वैसे ही जैसे छद्म आर्थिक विकास के नाम पर क्रिएट किए गए गुडी-गुडी माहौल में लोक और लोक जीवन की हलचलें दर किनार होने लगी. अब हिंदी सिनेमा में होली के रंग नहीं दिखते. लोक के इस माध्यम ने लोक के इस महापर्व को भुला दिया है. सिनेमा से होली बिसर गई है. होली के रंग बिला गए हैं.
होली प्रेम, मस्ती और उल्लास का त्यौहार है. इसका रंग कभी हमारी फिल्मों में जमकर बरसता था. फिल्मों में होली के दृश्य और गीत आम थे. दर्शकों को भी रंग खेलने का फिल्मी अंदाज खूब रास आता था. फिल्मों में होली की मस्ती दर्शकों को सिनेमा हॉल तक खींच लाती थी तो होली के गीत उन्हें इस लोकपर्व को मनाने का सिनेमाई अंदाज दे जाते थे. फिल्मकार भी कभी कहानी को आगे बढ़ाने के नाम पर तो कभी किसी और बहाने से होली के दृश्य और गीत अपनी फिल्मों में डालने के लिए उत्सुक रहते थे. बात अगर फिल्मों में होली के यादगार गीतों और दृश्यों की करें तो सबसे पहले 1944 में आई दिलीप कुमार की पहली फिल्म ‘ज्वारभाटा’ में होली का गीत फिल्माया गया था. तब ब्लैक एंड व्हाइट के जमाने में भी परदे पर रंगों का जादू दर्शकों को खूब भाया. इसके बाद तो सिलसिला चल निकला. ‘फूल और पत्थर’, ‘मदर इंडिया’, ‘नवरंग’, ‘गोदान’, ‘कटी पतंग’, ‘शोले’, ‘आप बीती’, ‘कोहिनूर’, ‘राजपूत’, ‘कामचोर’, ‘धनवान’ जैसी कई फिल्मों में होली के गीत और दृश्य दिखाई दिए. यहां तक कि ‘होली आई रे’ नाम से एक बार तथा ‘होली’ और ‘फागुन’ नाम से दो-दो बार फिल्में भी बनी. अभी कुछ साल पहले ‘कर्मा और होली’ नाम से भी एक फिल्म आई थी. फिल्मकारों में यश चोपड़ा ऐसे फिल्मकार रहे हैं, जिनकी ‘मशाल’, ‘सिलसिला’, ‘डर’, ‘मोहब्बतें’ आदि फिल्मों में होली का रंग जमकर बरसा है.
परदे पर होली को लेकर 80 के दशक तक फिल्मकारों का रूझान भरपूर दिखाई पड़ता है. इस दरम्यान सिनेमा ने होली के एक से बढ़कर एक खूबसूरत और मस्ती भरे गीत दिए. ‘लाई है हजारों रंग होली’ (फूल और पत्थर), ‘होली आई रे कन्हाई रंग छलके’ (मदर इंडिया), ‘अरे जा रे हट नटखट’ (नवरंग), ‘आज ना छोड़ेंगे बस हमजोली’ (कटी पतंग), ‘नीला, पीला, हरा, गुलाबी’ (आपबीती), ‘होली के दिन दिल खिल जाते हैं’ (शोले), ‘सात रंग में खेल रही है’ (आखिर क्यूं), जैसे होली के फिल्मी गीत आज भी दर्शकों की स्मृतियों में ताजा हैं. लेकिन इन सिनेमाई गीतों में सबसे ज्यादा किसी गीत का जादू लोगों के सिर चढ़कर बोला तो वो अमिताभ बच्चन की आवाज में उनपर और रेखा पर फिल्माया गया ‘सिलसिला’ का गीत ‘रंग बरसे भीगे चुनरवाली वाली’ है. सिलसिला के तकरीबन दो दशक बाद बागबान में एक बार फिर अमिताभ बच्चन ‘होली खेले रघुबीरा’ गाते नजर आए. अमिताभ बच्चन और हेमा मालिनी पर फिल्माए गए होली के इस गीत को भी दर्शकों ने खूब पसंद किया. अपनी आनेवाली भोजपुरी फिल्म गंगा देवी के जरिए अमिताभ बच्चन एकबार फिर परदे पर रंग-गुलाल उड़ाते दिखाई देनेवाले हैं.
90 के दशक से फिल्मों से होली और होली के गीत गायब होने लगे. ये वो दौर था, जब भारत आर्थिक उदारीकरण के युग में प्रवेश कर रहा था. समाज और सामाजिकता पर बाजारवाद हावी होने लगा था. धीरे धीरे बाजार का शिकंजा कसता गया. और बाजार के लिए जब लोक का कोई महत्व नहीं है तो फिर लोक पर्वों को वो कैसे तरजीह देता. वो भी होली जैसे पर्व जिसमें व्यापार की गुंजाइश कम है. गौरतलब है कि होली की मस्ती में सराबोर होने के लिए धन के प्रदर्शन और खर्च की नहीं, दिल में प्रेम, उमंग और उत्साह की जरूरत होती है. बाजार के इस बढ़ते प्रभाव से सिनेमा भी अछूता नहीं रहा. सरहद को लांघ हिंदी सिनेमा अपने लिए वैश्विक बाजार की तलाश में निकल पड़ा, लेकिन सरहद के भीतर वो सिकुड़ता भी गया. नई सदी के शुरू होते होते सिंगल स्टोरी वाले विशुद्ध सिनेमा हॉल खत्म होने लगे. उनकी जगह मॉल और मल्टीप्लेक्स ने ले ली, जहां सिनेमा देखने के साथ पिज्जा-बर्गर, पॉपकॉर्न और कोल्ड ड्रिंक मिलने लगे. फिल्में भी भारत के आम दर्शकों के लिए नहीं, शहरी दर्शकों और ओवरसीज मार्केट को ध्यान में रखकर बनाई जाने लगीं. इसी दरम्यान सिने जगत को उद्योग का भी दर्जा मिल गया यानी सिनेमा पूर्णत: व्यावसायिक हो गया, जिसका मकसद सिर्फ और सिर्फ मुनाफा कमाना था. ऐसे में लोकपर्व होली के लिए सिनेमाई जमीन को संकुचित तो होना ही था.
हालांकि इस दौरान ‘मोहब्बतें’, ‘बागबान’, ‘मंगल पाण्डेय’ जैसी चंद फिल्मों में होली के रंग जरूर दिखाई दिए, लेकिन अपवाद स्वरूप ही. वक्त के साथ परदे पर होली के रंग धूसर होते गए. आधुनिकता के नाम पर वेस्टर्न कल्चर के प्रति शहरी युवाओं के रूझान ने होली को फीका कर दिया. फिल्मकार भी होली से परहेज करने लगे. परदे पर होली नजर आई भी तो अपने सहज-स्वाभिवक मस्ती के रंग में नहीं, मॉडर्न बनने के चक्कर में कृत्रिमता का खोल ओढ़े हुए. कुछ साल पहले आई फिल्म ‘वक्त’ में होली का यही रुप देखने को मिला. ‘लेट्स प्ले होली’ गाते हुए नायक-नायिका वैसे ही रंग खेलते हैं, जैसे महानगरों में असली बारिश से बचते युवा डिस्को की धुन पर कृत्रिम बारिश में भीगने और बरसात का आनंद उठाने की नौटंकी करते हैं. लेकिन क्या ‘लेट्स प्ले होली’ से ‘आज न छोड़ेंगे हम हमजोली’ या ‘रंग बरसे भीगे चुनरवाली’ जैसे होली की मस्ती की सहज अभिव्यक्ति करनेवाले गीतों की भरपाई हो सकती है. यकीनन नहीं. और शायद इसीलिए आज भी होली के मौके पर लोकगीतों के साथ जब फिल्मी गीत बजते हैं, तो वो वही पुराने गीत होते हैं, जिनमें होली के रंग बरबस छलकते दिखाई देते हैं. फागुन की मस्ती जिनमें शबाब पर होती है. सिनेमा और जीवन से होली के रंग और होली के गीतों का यूं बिसरते जाना दुखद है. हमारे जीवन से होली नहीं गायब हो रही है, जीवन के रंग गायब होते जा रहे हैं और हम रंग विहीन- रस विहीन हाड़-मांस की मशीन में तब्दील होते जा रहे हैं. क्या होली के बगैर हमारा सिनेमा भी रंग और रस विहीन नहीं होता जा रहा है !
(ये आलेख सतरंगी संसार के मार्च अंक में प्रकाशित है)
होली प्रेम, मस्ती और उल्लास का त्यौहार है. इसका रंग कभी हमारी फिल्मों में जमकर बरसता था. फिल्मों में होली के दृश्य और गीत आम थे. दर्शकों को भी रंग खेलने का फिल्मी अंदाज खूब रास आता था. फिल्मों में होली की मस्ती दर्शकों को सिनेमा हॉल तक खींच लाती थी तो होली के गीत उन्हें इस लोकपर्व को मनाने का सिनेमाई अंदाज दे जाते थे. फिल्मकार भी कभी कहानी को आगे बढ़ाने के नाम पर तो कभी किसी और बहाने से होली के दृश्य और गीत अपनी फिल्मों में डालने के लिए उत्सुक रहते थे. बात अगर फिल्मों में होली के यादगार गीतों और दृश्यों की करें तो सबसे पहले 1944 में आई दिलीप कुमार की पहली फिल्म ‘ज्वारभाटा’ में होली का गीत फिल्माया गया था. तब ब्लैक एंड व्हाइट के जमाने में भी परदे पर रंगों का जादू दर्शकों को खूब भाया. इसके बाद तो सिलसिला चल निकला. ‘फूल और पत्थर’, ‘मदर इंडिया’, ‘नवरंग’, ‘गोदान’, ‘कटी पतंग’, ‘शोले’, ‘आप बीती’, ‘कोहिनूर’, ‘राजपूत’, ‘कामचोर’, ‘धनवान’ जैसी कई फिल्मों में होली के गीत और दृश्य दिखाई दिए. यहां तक कि ‘होली आई रे’ नाम से एक बार तथा ‘होली’ और ‘फागुन’ नाम से दो-दो बार फिल्में भी बनी. अभी कुछ साल पहले ‘कर्मा और होली’ नाम से भी एक फिल्म आई थी. फिल्मकारों में यश चोपड़ा ऐसे फिल्मकार रहे हैं, जिनकी ‘मशाल’, ‘सिलसिला’, ‘डर’, ‘मोहब्बतें’ आदि फिल्मों में होली का रंग जमकर बरसा है.
परदे पर होली को लेकर 80 के दशक तक फिल्मकारों का रूझान भरपूर दिखाई पड़ता है. इस दरम्यान सिनेमा ने होली के एक से बढ़कर एक खूबसूरत और मस्ती भरे गीत दिए. ‘लाई है हजारों रंग होली’ (फूल और पत्थर), ‘होली आई रे कन्हाई रंग छलके’ (मदर इंडिया), ‘अरे जा रे हट नटखट’ (नवरंग), ‘आज ना छोड़ेंगे बस हमजोली’ (कटी पतंग), ‘नीला, पीला, हरा, गुलाबी’ (आपबीती), ‘होली के दिन दिल खिल जाते हैं’ (शोले), ‘सात रंग में खेल रही है’ (आखिर क्यूं), जैसे होली के फिल्मी गीत आज भी दर्शकों की स्मृतियों में ताजा हैं. लेकिन इन सिनेमाई गीतों में सबसे ज्यादा किसी गीत का जादू लोगों के सिर चढ़कर बोला तो वो अमिताभ बच्चन की आवाज में उनपर और रेखा पर फिल्माया गया ‘सिलसिला’ का गीत ‘रंग बरसे भीगे चुनरवाली वाली’ है. सिलसिला के तकरीबन दो दशक बाद बागबान में एक बार फिर अमिताभ बच्चन ‘होली खेले रघुबीरा’ गाते नजर आए. अमिताभ बच्चन और हेमा मालिनी पर फिल्माए गए होली के इस गीत को भी दर्शकों ने खूब पसंद किया. अपनी आनेवाली भोजपुरी फिल्म गंगा देवी के जरिए अमिताभ बच्चन एकबार फिर परदे पर रंग-गुलाल उड़ाते दिखाई देनेवाले हैं.
90 के दशक से फिल्मों से होली और होली के गीत गायब होने लगे. ये वो दौर था, जब भारत आर्थिक उदारीकरण के युग में प्रवेश कर रहा था. समाज और सामाजिकता पर बाजारवाद हावी होने लगा था. धीरे धीरे बाजार का शिकंजा कसता गया. और बाजार के लिए जब लोक का कोई महत्व नहीं है तो फिर लोक पर्वों को वो कैसे तरजीह देता. वो भी होली जैसे पर्व जिसमें व्यापार की गुंजाइश कम है. गौरतलब है कि होली की मस्ती में सराबोर होने के लिए धन के प्रदर्शन और खर्च की नहीं, दिल में प्रेम, उमंग और उत्साह की जरूरत होती है. बाजार के इस बढ़ते प्रभाव से सिनेमा भी अछूता नहीं रहा. सरहद को लांघ हिंदी सिनेमा अपने लिए वैश्विक बाजार की तलाश में निकल पड़ा, लेकिन सरहद के भीतर वो सिकुड़ता भी गया. नई सदी के शुरू होते होते सिंगल स्टोरी वाले विशुद्ध सिनेमा हॉल खत्म होने लगे. उनकी जगह मॉल और मल्टीप्लेक्स ने ले ली, जहां सिनेमा देखने के साथ पिज्जा-बर्गर, पॉपकॉर्न और कोल्ड ड्रिंक मिलने लगे. फिल्में भी भारत के आम दर्शकों के लिए नहीं, शहरी दर्शकों और ओवरसीज मार्केट को ध्यान में रखकर बनाई जाने लगीं. इसी दरम्यान सिने जगत को उद्योग का भी दर्जा मिल गया यानी सिनेमा पूर्णत: व्यावसायिक हो गया, जिसका मकसद सिर्फ और सिर्फ मुनाफा कमाना था. ऐसे में लोकपर्व होली के लिए सिनेमाई जमीन को संकुचित तो होना ही था.
हालांकि इस दौरान ‘मोहब्बतें’, ‘बागबान’, ‘मंगल पाण्डेय’ जैसी चंद फिल्मों में होली के रंग जरूर दिखाई दिए, लेकिन अपवाद स्वरूप ही. वक्त के साथ परदे पर होली के रंग धूसर होते गए. आधुनिकता के नाम पर वेस्टर्न कल्चर के प्रति शहरी युवाओं के रूझान ने होली को फीका कर दिया. फिल्मकार भी होली से परहेज करने लगे. परदे पर होली नजर आई भी तो अपने सहज-स्वाभिवक मस्ती के रंग में नहीं, मॉडर्न बनने के चक्कर में कृत्रिमता का खोल ओढ़े हुए. कुछ साल पहले आई फिल्म ‘वक्त’ में होली का यही रुप देखने को मिला. ‘लेट्स प्ले होली’ गाते हुए नायक-नायिका वैसे ही रंग खेलते हैं, जैसे महानगरों में असली बारिश से बचते युवा डिस्को की धुन पर कृत्रिम बारिश में भीगने और बरसात का आनंद उठाने की नौटंकी करते हैं. लेकिन क्या ‘लेट्स प्ले होली’ से ‘आज न छोड़ेंगे हम हमजोली’ या ‘रंग बरसे भीगे चुनरवाली’ जैसे होली की मस्ती की सहज अभिव्यक्ति करनेवाले गीतों की भरपाई हो सकती है. यकीनन नहीं. और शायद इसीलिए आज भी होली के मौके पर लोकगीतों के साथ जब फिल्मी गीत बजते हैं, तो वो वही पुराने गीत होते हैं, जिनमें होली के रंग बरबस छलकते दिखाई देते हैं. फागुन की मस्ती जिनमें शबाब पर होती है. सिनेमा और जीवन से होली के रंग और होली के गीतों का यूं बिसरते जाना दुखद है. हमारे जीवन से होली नहीं गायब हो रही है, जीवन के रंग गायब होते जा रहे हैं और हम रंग विहीन- रस विहीन हाड़-मांस की मशीन में तब्दील होते जा रहे हैं. क्या होली के बगैर हमारा सिनेमा भी रंग और रस विहीन नहीं होता जा रहा है !
(ये आलेख सतरंगी संसार के मार्च अंक में प्रकाशित है)
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