Skip to main content

सतरंगी संसार के जून अंक का संपादकीय

जश्न मनाइए मगर...


यह हमारे सिनेमा का शताब्दी वर्ष है. बीती 03 मई को भारतीय सिनेमा अपने सौवें साल में प्रवेश कर गया. यह एक बड़ी उपलब्धि है और यकीनन यह समय सिनेमा और उसे प्यार करनेवालों के लिए उत्सवधर्मी समय भी है. हम उत्सव मनाएं, मना भी रहे हैं. लेकिन इस जश्न के माहौल में विचार इसपर भी होना चाहिए कि इन सौ सालों में भारतीय सिनेमा ने हासिल कितना और क्या किया है. सौ साल का समय कोई कम नहीं होता और सिनेमा अपने सौ साल के सफर में चला भी बहुत है. सवाल है कि इस चलने ने उसने दूरी कितनी और कहां तक तय की है. या फिर मामला कहीं,नौ दिन चले अढ़ाई कोस वाला तो नहीं.
बात अगर सिनेमा के तकनीकी विकास की करें, तो इसमें इसने जरूर यादगार उन्नति की है. मूक फिल्मों से शुरू होकर बोलने तक का, श्वेत-श्याम छवियों से रंगीन दौर में जाना और सेल्युलाइड से डिजिटल तकनीक तक का सफर, सिनेमा के क्रमिक तकनीकी विकास की ही यात्रा की कहानी है. तकनीक के क्षेत्र में सिनेमा में आज भी प्रयोग दर प्रयोग हो रहे हैं. सिनेमा तकनीकी तौर पर और उन्नत होता जा रहा है. मगर यह विकास सिनेमा का समग्र विकास नहीं है, क्योंकि सिनेमा सिर्फ तकनीक नहीं है. लाइट, साउंड, कैमरा और एक्शन ही सिनेमा नहीं है. कथा-पटकथा, संवाद और गीत संगीत भी सिनेमा का ही हिस्सा हैं यानी मानवीय अनुभूतियां और मानवीय रचनात्मकता. कहें तो सिनेमा का मुख्य तत्व मानवीय रचनात्मकता से ही जुड़ा है और तकनीक इस रचनात्मकता को बेहतर ढंग से परदे पर उकेरने में सिर्फ सहयोग करती है. सवाल इन मानवीय अनुभूतियों और रचनात्मकता को ही परदे पर उतारने के प्रयासों से है. इसमें हमारे सिनेमा ने कितना विकास किया है, क्योंकि यही अपनी थाती भी है.
सिनेमा जनता तक अपनी बात को सहज-सरल ढंग से पहुंचाने के सबसे प्रभावी माध्यमों में एक है, लेकिन इसके साथ एक दिक्कत यह रही कि इसे शुरू से ही मनोरंजन का माध्यम मान लिया गया. परिणाम समय-समाज और मनुष्य के सरोकार इसकी चिंता के केंद्र में कभी रहे ही नहीं. जिन थोड़े बहुत फिल्मकारों ने इसे मानवीय सरोकारों से जोड़ना चाहा उन्हें बड़े ही सुनियोजित तरीके से अलग-थलग कर दिया गया. आज भी जो फिल्में मनोरंजन परोसती हैं या मनोरंजन के नाम पर कुछ भी परोसने से बाज नहीं आतीं, वे मुख्यधारा की फिल्में मानी जाती हैं, जबकि जो फिल्में समय-समाज के सच को सामने लाने की कोशिश करती हैं. जीवन के यथार्थ की कहानियां कहती हैं, उन्हें अलग किस्म की फिल्में कहकर जाति बाहर कर दिया जाता है. बीच के दौर में तो ऐसी फिल्मों और इन्हें बनाने वाले फिल्मकारों के लिए समांतर सिनेमा के नाम से एक अलग कैटेगरी ही बना दी गई थी. जबकि सिनेमा का ऐसा कोई विभाजन होता नहीं है. सिनेमा या तो अच्छा होता है या फिर बुरा. अच्छी और बुरी फिल्में हमेशा बनती रही हैं. तब भी जब ऐसी कोई कैटेगरी नहीं थी मनोरंजन के नाम पर फिल्मकार कुछ भी परोस रहे थे, उसी सिनेमा में रहकर बिमल रॉय, व्ही. शांताराम, गुरुदत्त, चेतन आनंद, राज कपूर जैसे चंद लोग सार्थक रच रहे थे. जन जीवन की कहानियों को सेल्युलाइड पर उतार रहे थे.
आज भी फूहड़पन, वल्गैरिटी और अपनी फिल्मों में बेसिर पैर की कहानियां परोसने वाले फिल्मकारों के बीच कुछ प्रयोगधर्मी फिल्मकार अलग हट के फिल्में जरूर बना रहे हैं. लेकिन इनकी संख्या कितनी है, यह सोचने वाली बात है. एक सवाल यह भी कि प्रयोग और यथार्थ के नाम पर जो कुछ भी परोसा जा रहा है, क्या वाकई उसकी कोई सार्थकता भी है या फिर ये प्रयोगवादी फिल्मकार कहलाने की आड़ में मनोरंजन और कमाई के नए रास्ते हैं. यह सवाल इसलिए कि आजकल फिल्मों में सेक्स और हिंसा को नए ढंग से परोसने का चलन बढ़ा है. सेक्स और हिंसा आदिम प्रवृतियां हैं और लोगों में हमेशा से थ्रिल उत्पन्न करती आई हैं. प्रयोग और यथार्थ के नाम पर इन्हें नए ढंग से परदे पर उतारकर फिल्मकार अपनी जेबें भी भर रहे हैं और अलग किस्म का फिल्मकार होने का सुख भी भोग रहे हैं. सवाल यह कि क्या यह भी सौ साल के भारतीय सिनेमा के विकास यात्रा का ही एक चरण है और यदि हां तो सवाल यह भी कि इस विकास ने हमें दिया क्या है और इससे सिनेमा कितना बेहतर हुआ है.
ओशो ने कहीं कहा था कि हम इतराते हैं कि हमारे यहां बुद्ध पैदा हुए. यह इतराने वाली बात नहीं है सोचने वाली बात है कि हजारों साल की भारतीय सभ्यता में हम सिर्फ एक बुद्ध पैदा कर पाए, फिर बुद्ध नहीं हुए. इसे अगर भारतीय सिनेमा के संदर्भ में देखें तो आज भी अच्छी, सरोकारी और सार्थक फिल्मों के नाम पर पुराने दौर की ही चुनिंदा फिल्में याद आती हैं. सौ साल का लंबा सफर तय करनेवाले भारतीय सिनेमा के लिए क्या यह सोचनेवाली बात नहीं है. सौ साल के जश्न के बीच इस सवाल पर भी विचार होना चाहिए.
सतरंगी संसार इस अंक से सौ साल के सिनेमा पर एक स्तंभ शुरू कर रहा है, जो पूरे साल चलेगा. इसमें सौ साल के सिनेमा सफर की विवेचनात्मक पड़ताल तो होगी ही, साथ ही सिनेमा के इतिहास से जुड़ी कुछ रोचक जानकारियां भी रहेंगी. इस स्तंभ की शुरुआत पत्रिका के सलाहकार संपादक दीपक कुमार राय कर रहे हैं. इस अंक की स्पेशल स्टोरी सिनेमा में कॉमेडी पर केंद्रीत है. यह भी एक तरह से सौ साल के सिनेमा में कॉमेडी के सफर की पड़ताल ही है. इनके अलावा इस अंक में और भी बहुत कुछ खास है, जिन्हें आप जरूर पढ़ना चाहेंगे. अंक कैसा बन पड़ा है, इसे लेकर आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतजार रहेगा.

Comments

Popular posts from this blog

आमिर, पीपली लाइव और किसान...

पीपली लाइव हिट हो गई... आमिर खान की पिछली फिल्मों की तरह ही पीपली लाइव भी रिलीज से पहले ही इतनी सुर्खियां बटोर ले गई की हिट हो गई... आमिर खान अपनी फिल्मों की मार्केटिंग का फंडा खूब जानते हैं... बाजार की फिलॉसफी कहती है कि प्रोडक्ट नहीं प्रोडक्ट का विज्ञापन मायने रखता है... आमिर खान बाजार के इसी फार्मूले पर चले और कामयाब रहे... महज तीन करोड़ की लागत में बनी इस फिल्म के प्रचार पर उन्होने सात करोड़ की भारी भरकम रकम खर्च की... और फिर भी फायदे में हैं... रिलीज से पहले ही पीपली लाइव कई करोड़ की कमाई कर चुकी है, जो यकीनन आगे और बढ़ेगी ही... जाहिर है आम जनता को खून का आंसू रुलाने वाली महंगाई डायन का असर आमिर खान ने अपनी फिल्म पर नहीं पड़ने दिया... पीपली लाइव वाकई लीक से हटकर बनी एक संजीदा फिल्म है... और यकीनन ये फिल्म आमिर खान के कद को और ऊंचा ही करेगी... लेकिन सवाल है कि ये फिल्म उन किसानों का कितना भला करेगी, जो कर्ज के बोझ तले भूखमरी से निजात के लिए खुदकुशी करने पर मजबूर हो जाते हैं... इसे शायद बाजार का ही दबाव कहें या मार्केटिंग का नुस्खा कि फिल्म की कहानी में भूखमरी के शिकार किसानों ...

बनारस… जिंदगी और जिंदादिली का शहर

(बनारस न मेरी जन्मभूमि है और न ही कर्मभूमि... फिर भी ये शहर मुझे अपना लगता है... अपनी लगती है इसकी आबो हवा और पूरी मस्ती के साथ छलकती यहां की जिंदगी... टुकड़ों-टुकड़ों में कई बार इस शहर में आया हूं मैं... और जितनी बार आया हूं... कुछ और अधिक इसे अपने दिल में बसा कर लौटा हूं... तभी तो दूर रहने के बावजूद दिल के बेहद करीब है ये शहर... मुझे लगता है कि आज की इस व्यक्तिगत महात्वाकांक्षाओं वाले इस दौर में, जहां पैसा ज्यादा मायने रखने लगा है, जिंदगी कम... इस शहर से हमें सीखने की जरुरत है...इस बार इसी शहर के बारे में...) साहित्य में मानवीय संवेदनाओं और अनुभूतियों के नौ रस माने गये हैं... लेकिन इसके अलावा भी एक रस और है, जिसे साहित्य के पुरोधा पकड़ने से चूक गये... लेकिन जिसे लोक ने आत्मसात कर लिया... वह है बनारस... जीवन का दसवां रस... जिंदगी की जिंदादिली का रस... जिसमें साहित्य के सारे रस समाहित होकर जिंदगी को नया अर्थ देते हैं... जिंदगी को मस्ती और फक्कड़पन के साथ जीने का अर्थ... कमियों और दुख में भी जिंदगी के सुख को तलाश लेने का अर्थ़... बहुत पुराना है बनारस का इतिहास... संभवतः सभ्यता के वि...

पाकिस्तान में बैन बॉलीवुड-1

फिल्मों की खबरों और आलेख के लिए देखें-  http://www.filmivilmi.com/                                                                https://www.facebook.com/filmivilmi/                                पाकिस्तान में बैन बॉलीवुड-1 दो दर्जन से ज्यादा बॉलीवुड फिल्मों पर बैन लगा चुका है पाकिस्तान साल के दो महीने में तीन बॉलीवुड फिल्में पाकिस्तान में बैन दुनिया और सिनेमा के ग्लोबल होने के बाद बॉलीवुड भी हिंदुस्तान की सरहद से बाहर निकला और अपनी कामयाबी के झंडे गाड़े, लेकिन इस दौरान पाकिस्तान के साथ उसका रिश्ता अजीबोगरीब रहा है. क्योंकि एक तरफ जहां बॉलीवुड फिल्मों को जहां पूरी दुनिया में प्यार मिल रहा है और वो हर जगह अपना परचम लहरा रही हैं, पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान उन्हें बैन करने में लगा है. हालिया रिलीज अय्यारी से लेकर ऐसी फिल्मों की फेहरिस्त...