जश्न मनाइए मगर...
यह हमारे सिनेमा का
शताब्दी वर्ष है. बीती 03 मई को भारतीय सिनेमा अपने सौवें साल में प्रवेश कर गया.
यह एक बड़ी उपलब्धि है और यकीनन यह समय सिनेमा और उसे प्यार करनेवालों के लिए
उत्सवधर्मी समय भी है. हम उत्सव मनाएं, मना भी रहे हैं. लेकिन इस जश्न के माहौल
में विचार इसपर भी होना चाहिए कि इन सौ सालों में भारतीय सिनेमा ने हासिल कितना और
क्या किया है. सौ साल का समय कोई कम नहीं होता और सिनेमा अपने सौ साल के सफर में
चला भी बहुत है. सवाल है कि इस चलने ने उसने दूरी कितनी और कहां तक तय की है. या
फिर मामला कहीं, ‘नौ दिन चले अढ़ाई कोस’
वाला तो नहीं.
बात अगर सिनेमा के
तकनीकी विकास की करें, तो इसमें इसने जरूर यादगार उन्नति की है. मूक फिल्मों से
शुरू होकर बोलने तक का, श्वेत-श्याम छवियों से रंगीन दौर में जाना और सेल्युलाइड
से डिजिटल तकनीक तक का सफर, सिनेमा के क्रमिक तकनीकी विकास की ही यात्रा की कहानी
है. तकनीक के क्षेत्र में सिनेमा में आज भी प्रयोग दर प्रयोग हो रहे हैं. सिनेमा
तकनीकी तौर पर और उन्नत होता जा रहा है. मगर यह विकास सिनेमा का समग्र विकास नहीं
है, क्योंकि सिनेमा सिर्फ तकनीक नहीं है. लाइट, साउंड, कैमरा और एक्शन ही सिनेमा
नहीं है. कथा-पटकथा, संवाद और गीत संगीत भी सिनेमा का ही हिस्सा हैं यानी मानवीय
अनुभूतियां और मानवीय रचनात्मकता. कहें तो सिनेमा का मुख्य तत्व मानवीय रचनात्मकता
से ही जुड़ा है और तकनीक इस रचनात्मकता को बेहतर ढंग से परदे पर उकेरने में सिर्फ
सहयोग करती है. सवाल इन मानवीय अनुभूतियों और रचनात्मकता को ही परदे पर उतारने के
प्रयासों से है. इसमें हमारे सिनेमा ने कितना विकास किया है, क्योंकि यही अपनी
थाती भी है.
सिनेमा जनता तक अपनी
बात को सहज-सरल ढंग से पहुंचाने के सबसे प्रभावी माध्यमों में एक है, लेकिन इसके
साथ एक दिक्कत यह रही कि इसे शुरू से ही मनोरंजन का माध्यम मान लिया गया. परिणाम
समय-समाज और मनुष्य के सरोकार इसकी चिंता के केंद्र में कभी रहे ही नहीं. जिन
थोड़े बहुत फिल्मकारों ने इसे मानवीय सरोकारों से जोड़ना चाहा उन्हें बड़े ही
सुनियोजित तरीके से अलग-थलग कर दिया गया. आज भी जो फिल्में मनोरंजन परोसती हैं या
मनोरंजन के नाम पर कुछ भी परोसने से बाज नहीं आतीं, वे मुख्यधारा की फिल्में मानी
जाती हैं, जबकि जो फिल्में समय-समाज के सच को सामने लाने की कोशिश करती हैं. जीवन
के यथार्थ की कहानियां कहती हैं, उन्हें अलग किस्म की फिल्में कहकर जाति बाहर कर
दिया जाता है. बीच के दौर में तो ऐसी फिल्मों और इन्हें बनाने वाले फिल्मकारों के
लिए समांतर सिनेमा के नाम से एक अलग कैटेगरी ही बना दी गई थी. जबकि सिनेमा का ऐसा
कोई विभाजन होता नहीं है. सिनेमा या तो अच्छा होता है या फिर बुरा. अच्छी और बुरी
फिल्में हमेशा बनती रही हैं. तब भी जब ऐसी कोई कैटेगरी नहीं थी मनोरंजन के नाम पर फिल्मकार
कुछ भी परोस रहे थे, उसी सिनेमा में रहकर बिमल रॉय, व्ही. शांताराम, गुरुदत्त,
चेतन आनंद, राज कपूर जैसे चंद लोग सार्थक रच रहे थे. जन जीवन की कहानियों को
सेल्युलाइड पर उतार रहे थे.
आज भी फूहड़पन,
वल्गैरिटी और अपनी फिल्मों में बेसिर पैर की कहानियां परोसने वाले फिल्मकारों के
बीच कुछ प्रयोगधर्मी फिल्मकार अलग हट के फिल्में जरूर बना रहे हैं. लेकिन इनकी
संख्या कितनी है, यह सोचने वाली बात है. एक सवाल यह भी कि प्रयोग और यथार्थ के नाम
पर जो कुछ भी परोसा जा रहा है, क्या वाकई उसकी कोई सार्थकता भी है या फिर ये
प्रयोगवादी फिल्मकार कहलाने की आड़ में मनोरंजन और कमाई के नए रास्ते हैं. यह सवाल
इसलिए कि आजकल फिल्मों में सेक्स और हिंसा को नए ढंग से परोसने का चलन बढ़ा है.
सेक्स और हिंसा आदिम प्रवृतियां हैं और लोगों में हमेशा से थ्रिल उत्पन्न करती आई
हैं. प्रयोग और यथार्थ के नाम पर इन्हें नए ढंग से परदे पर उतारकर फिल्मकार अपनी
जेबें भी भर रहे हैं और अलग किस्म का फिल्मकार होने का सुख भी भोग रहे हैं. सवाल
यह कि क्या यह भी सौ साल के भारतीय सिनेमा के विकास यात्रा का ही एक चरण है और यदि
हां तो सवाल यह भी कि इस विकास ने हमें दिया क्या है और इससे सिनेमा कितना बेहतर
हुआ है.
ओशो ने कहीं कहा था
कि हम इतराते हैं कि हमारे यहां बुद्ध पैदा हुए. यह इतराने वाली बात नहीं है सोचने
वाली बात है कि हजारों साल की भारतीय सभ्यता में हम सिर्फ एक बुद्ध पैदा कर पाए,
फिर बुद्ध नहीं हुए. इसे अगर भारतीय सिनेमा के संदर्भ में देखें तो आज भी अच्छी,
सरोकारी और सार्थक फिल्मों के नाम पर पुराने दौर की ही चुनिंदा फिल्में याद आती हैं.
सौ साल का लंबा सफर तय करनेवाले भारतीय सिनेमा के लिए क्या यह सोचनेवाली बात नहीं
है. सौ साल के जश्न के बीच इस सवाल पर भी विचार होना चाहिए.
सतरंगी संसार इस अंक
से सौ साल के सिनेमा पर एक स्तंभ शुरू कर रहा है, जो पूरे साल चलेगा. इसमें सौ साल
के सिनेमा सफर की विवेचनात्मक पड़ताल तो होगी ही, साथ ही सिनेमा के इतिहास से
जुड़ी कुछ रोचक जानकारियां भी रहेंगी. इस स्तंभ की शुरुआत पत्रिका के सलाहकार
संपादक दीपक कुमार राय कर रहे हैं. इस अंक की स्पेशल स्टोरी सिनेमा में कॉमेडी पर
केंद्रीत है. यह भी एक तरह से सौ साल के सिनेमा में कॉमेडी के सफर की पड़ताल ही
है. इनके अलावा इस अंक में और भी बहुत कुछ खास है, जिन्हें आप जरूर पढ़ना चाहेंगे.
अंक कैसा बन पड़ा है, इसे लेकर आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतजार रहेगा.
Comments